सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य यही पूरा नाम है हेमू का. हेमू इतिहास के भुला दिए गए उन चुनिन्दा लोगो में शामिल है जिन्होंने इतिहास का रुख पलट कर रख दिया था. हेमू ने बिलकुल अनजान से घर में जन्म लेकर, हिंदुस्तान के तख़्त पर राज़ किया. उसके अपार पराक्रम एवं लगातार अपराजित रहने की वजह से उसे विक्रमादित्य की उपाधि दी गयी.
हेमू का जन्म एक ब्राह्मण श्री राय पूरण दस के घर १५०१ में अलवर राजस्थान में हुआ, जो उस वक़्त पुरोहित (पूजा पाठ करने वाले) थे, किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितो को परेशान करने की वजह से रेवारी (हरियाणा) में आ कर नमक का व्यवसाय करने लगे.
काफी कम उम्र से ही हेमू, शेर शाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट (गन पावडर हेतु) उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे. सन १५४० में शेर शाह सूरी ने हुमायु को हरा कर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था. हेमू ने उसी वक़्त रेवारी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नीव राखी, जो आज भी रेवारी में ब्रास, कोंपर, स्टील के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है.
शेर शाह सूरी की १५४५ में मृत्यु के पाश्चर इस्लाम शाह ने उसकी गद्दी संभाली, इस्लाम शाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचाना और उसे व्यापार एवं वित्त संबधी कार्यो के लिए अपना सलाहकार नियुक्त किया. हेमू ने अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लाम शाह का विश्वासपात्र बन गया... इस्लाम शाह हेमू से हर मसले पर राय लेने लगा, हेमू के काम से खुश होकर उसे दरोगा-ए-चौकी (chief of intelligence) बना दिया गया.
१५४५ में इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसके १२ साल के पुत्र फ़िरोज़ शाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिल शाह सूरी ने मार कर गद्दी हथिया ली. आदिल ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया. आदिल अय्याश और शराबी था... कुल मिला कर पूरी तरह अफगानी सेना का नेतृत्व हेमू के हाथ में आ गया था.
हेमू का सेना के भीतर जम के विरोध भी हुआ.. पर हेमू अपने सारे प्रतिद्वंदियो को एक एक कर हराता चला गया.
उस समय तक हेमू की अफगान सैनिक जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था.. अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासको को विदेशी मानते थे, इसी वजह से हेमू हिन्दू एवं अफगान दोनों में काफी लोकप्रिय हो गया था.
हुमायु ने जब वापस हमला कर शेर शाह सूरी के भाई को परस्त किया तब हेमू बंगाल में था, कुछ समय बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई.. हेमू ने तब दिल्ली की तरफ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की कई रियासतों को फ़तेह किया. आगरा में मुगलों के सेना नायक इस्कंदर खान उज्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया.
हेमू ने अपने जीवन काल में एक भी युद्ध नहीं हारा, पानीपत की लडाई में उसकी मृत्यु हुई जो उसका आखरी युद्ध था.
अक्टूबर ६, १५५६ में हेमू ने तरदी बेग खान (मुग़ल) को हारा कर दिल्ली पर विजय हासिल की. यही हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया.
लगभग ३ शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार (कम समय के लिए ही सही) कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना. भले ही हेमू का जन्म ब्राह्मण समाज में हुआ और उसको पालन पोषण भी पुरे धार्मिक तरीके से हुआ पर वह सभी धर्मो को समान मानता था, इसीलिए उसके सेना के अफगान अधिकारी उसकी पूरी इज्ज़त करते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेना नायक साबित हो चूका था.
पानीपत के युद्ध से पहले अकबर के कई सेनापति उसे हेमू से युद्ध करने के लिए मना कर चुके थे, हलाकि बैरम खान जो अकबर का संरक्षक भी था, ने अकबर को दिल्ली पर नियंत्रण के लिए हेमू से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया. पानीपत के युद्ध में भी हेमू की जीत निश्चित थी, किन्तु एक तीर उसकी आँख में लग जाने से, नेतृत्व की कमी की वजह से उसकी सेना का उत्साह कमजोर पड़ गया और उसे बंदी बना लिया गया... अकबर ने हेमू को मारने से मना कर दिया किन्तु बैरम खान ने उसका क़त्ल कर दिया.
आज कई लोग इतिहास के इस महान नायक को भुला चुके है, किन्तु मुगलों को कड़ी टक्कर देने की वजह से ही हिंदुस्तान कई विदेशी आक्रमणों से बचा रहा... आप खुद ही सोचिये.. बिना किसी राजनैतिक प्रष्ठभूमि के इतनी उचाईयो को छुने वाले का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा.
आज भी हेमू की हवेली जर्जर हालत में रेवारी में है.... भारत ही शायद एक देश है जहा... इतिहास की कोई कदर नहीं होती.