Thursday, September 9, 2010

यशवंतराव होलकर की बहादुरी से वाकिफ है आप..?

पिछली कड़ी को जारी रखते हुए, यहाँ मै आपका परिचय इतिहास के उन भुला दिए गए लोगो से करवा रहा हु, जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते है, पर उनका इतिहास में योगदान अभूतपूर्व है, उनके सहस को आप सलाम करेंगे, और जब भी आप इतिहास देखे तो आपको गर्व होगा की हमारा इतिहास कितना गौरवशाली रहा है.

प्रसिध इतिहास शास्त्री एन एस इनामदार ने इनकी तुलना नेपोलियन से की है, और मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने इनकी बहादुरी देख कर "महाराजाधिराज राज राजेश्वर अलीजा बहादुर" की उपाधि दी थी, ये थे पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवंत राव होलकर. इनके बारे में आज शायद मालवा के लोग भी इतनी जानकारी नहीं रखते होंगे पर यदि हम इनका योगदान देखे तो कही भी ये महाराणा प्रताप या झासी की रानी से कम नहीं है.
तुकोजीराव होलकर जिन्होंने टीपू सुल्तान को मात देकर भगवा पताका तुंगभद्र नदी के पार फहराया था, उन्ही के पुत्र थे यशवंतराव इनका जन्म 1776  में हुआ था| होलकर के उत्तर भारत में बड़ते प्रभाव की वजह से दौलतराव सिंधिया (ग्वालियर के शासक) ने हमला कर यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मार दिया तब यशवंतराव ने नागपुर के राघोजी भोंसले से आश्रय लिया| इस घटना के बाद यशवंतराव ने किसी पर भरोसा करना छोड़ दिया, और इनका प्रभाव व समर्थन बड़ने लगा. सिर्फ 26 साल की उम्र में इन्होने 1802 में पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिलीजुली सेना को मात दी और अमृतराव को पेशवा बना कर वापस इंदौर लौट आये. इसी दौरान अँगरेज़ भारत में अपने पैर पसार रहे थे. इसी वजह से नागपुर के भोंसले, इंदौर के होलकर एवं ग्वालियर के सिंधिया ने साथ मिल कर अंग्रेजो के विरुद्ध लड़ने का फैसला किया पर यहाँ सिंधिया और बाजीराव ने होलकर से अपनी पुरानी दुश्मनी की वजह से इन्हें दगा देकर ये संधि तोड़ दी|

इस वक्त तक नागपुर के भोंसले और बड़ोदा के गायकवाड ने अंग्रेजो के साथ संधि कर ली थी, परन्तु यशवंतराव को यह मंज़ूर नहीं था, इन्होने वापस सभी राजाओ को पत्र लिख कर देश के सम्मान को आगे रख एकजुट होकर अंग्रेजो के विरुद्ध युध लड़ने का आग्रह किया, पर उनके बहरे कानो पर इसका कोई असर नहीं हुआ और अधिकतर ने अंग्रेजो से हाथ मिला लिए थे |
8 जून 1804 को यशवंतराव ने अंग्रेजो को युद्ध में कड़ी मात दी, जो अंग्रेजो के मुह पर तमाचे की तरह लगी | यशवंतराव ने फिर से 8 जुलाई 1804 को कोटा में अंग्रेजो को बुरी तरह हराया | अक्टूबर में मुग़ल शासक शाह आलम द्वितीय को अंग्रेजो ने बंदी बना लिया, उन्होंने यशवंतराव से मदद मांगी, तब यशवंतराव ने दिल्ली की ओर कूच किया, हलाकि वो इसमें सफल नहीं हो पाए पर उनकी बहादुरी को देखते हुए शाह आलम ने उन्हें "महाराजाधिराज राज राजेश्वर अलीजा बहादुर" की उपाधि दी |  11 sep 1804 में अँगरेज़ जनरल वेलेस्स्ले ने लोर्ड ल्युक को लिखा की यदि यशवंतराव को जल्द ही नहीं हराया गया तो वे बाकि राजाओ को अपने साथ मिला कर अंग्रेजो को खदेड़ देंगे | 16 नवम्बर 1804 दिग (राजस्थान) में इन्होने फिर अंग्रेजो को हराया, भरतपुर के महाराज रंजित सिंह ने इनका साथ दिया| लोर्ड ल्युक ने दिग पर हमला किया जहा मराठा और जाट ने डटकर इनका सामना किया, कहा जाता है की यशवंतराव ने 300 अंग्रेजो की नाक काट डाली थी. ये युद्ध ३ महीनो तक चला| इस युद्ध के बाद यशवंतराव अपनी बहादुरी की वजह से पुरे भारत में प्रसिद्ध हो गए थे| यशवंतराव ये युद्ध भी जीतने ही वाले थे, पर आश्चर्यजनक रूप से आखरी मौके पर रंजित सिंह ने अंग्रेजो के साथ संधि कर ली, और यशवंतराव को भरतपुर छोड़ के जाना पड़ा| 

एक बार फिर सिंधिया और होलकर साथ में आये, जब यह बात अंग्रेजो को पता पड़ी तो उनकी चिंता बड़ गई, लोर्ड ल्युक ने जनरल वेल्लेस्ले को यशवंतराव के सामने लड़ने में अपनी असमर्थता जताई और लिखा की यशवंतराव की सेना को अंग्रेजो को मारने में बड़ा मज़ा आता है | तब जनरल ने फैसला किया की होलकर के साथ बिना युद्ध शांति स्थापित की जाये और उनके सारे क्षेत्र उन्हें बिना शर्त वापस लौटा दिए जाये.
यशवंतराव ने अंग्रेजो के साथ कोई भी समझौता करने से इंकार कर दिया, पर सिंधिया ने अंग्रेजो के साथ समझौता कर लिया और यशवंतराव अकेले पड़ गए. यशवंतराव ने फिर भी हार नहीं मानी और पंजाब के कई राजाओ को पत्र लिखा कर साथ लड़ने का आग्रह किया | पर किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया | ब्रिटिश कौंसिल ने हर हाल में होलकर के साथ शांति स्थापित करने का आदेश दिया, क्योकि यशवंतराव सभी राजाओ को एकजुट करने में जी जान से लगे हुए थे |
यशवंतराव इकलौते ऐसे भारतीय राजा थे जिनसे अंग्रेजो ने हर हाल में बिना शर्त समझौता करने के लिए पहल की | यशवंतराव ने जब देखा की कोई भी उनका साथ नहीं दे रहा है तब वह आखरी भारतीय राजा थे जिन्होंने १८०५ में राजघाट (तब पंजाब, अभी दिल्ली) में अंग्रेजो के साथ संधि करी | अंग्रेजो ने उन्हें स्वतन्त्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए और उनके क्षेत्र में कोई भी हस्तक्षेप नहीं करने का वचन दिया |

इसके बावजूद भी यशवंतराव को अंग्रेजो से संधि मजूर नहीं थी और उन्होंने फिर से दौलत राव सिंधिया को साथ मिलकर लड़ने के लिए पत्र लिखा, सिंधिया ने उन्हें फिर दगा देकर ये पत्र अंग्रेजो को दे दिया, इसके बाद यशवंतराव ने अकेले ही अंग्रेजो से युद्ध लड़ का भारत से बाहर खदेड़ना का फैसला किया | इसके लिए उन्हें बड़े लश्कर और गोला बारूद की जरुरत थी जिसके लिए उन्होंने भानपुर (मंदसौर जिला) में कारखाना डाला और लश्कर के लिए दिन रात मेहनत करना चालू किया पर इतनी कड़ी मेहनत की वजह से 28 अक्टूबर 1806 में सिर्फ ३५ साल की उम्र में उनका देहांत हो गया |

क्या आप कल्पना कर सकते है, इतनी छोटी उम्र में उन्होंने कई बार अंग्रेजो को मात दी, और कई राजाओ को लड़ने के लिए प्रेरित किया. आप खुद ही सोचिये यदि सिंधिया, गायकवाड और पेशवा ने उन्हें दगा नहीं दिया होता तो अँगरेज़ कभी यहाँ टिक नहीं पाते.
यशवंतराव सच्चे देशभक्त और स्वाभिमानी व्यक्ति थे.

Sunday, June 13, 2010

हेमू को जानते है आप...?

सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य यही पूरा नाम है हेमू का. हेमू इतिहास के भुला दिए गए उन चुनिन्दा लोगो में शामिल है जिन्होंने इतिहास का रुख पलट कर रख दिया था. हेमू ने बिलकुल अनजान से घर में जन्म लेकर, हिंदुस्तान के तख़्त पर राज़ किया. उसके अपार पराक्रम एवं लगातार अपराजित रहने की वजह से उसे विक्रमादित्य की उपाधि दी गयी.
हेमू का जन्म एक ब्राह्मण श्री राय पूरण दस के घर १५०१ में अलवर राजस्थान में हुआ, जो उस वक़्त पुरोहित (पूजा पाठ करने वाले) थे, किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितो को परेशान करने की वजह से रेवारी (हरियाणा) में आ कर नमक का व्यवसाय करने लगे.
काफी कम उम्र से ही हेमू, शेर शाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट (गन पावडर हेतु) उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे. सन १५४० में शेर शाह सूरी ने हुमायु को हरा कर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था. हेमू ने उसी वक़्त रेवारी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नीव राखी, जो आज भी रेवारी में ब्रास, कोंपर, स्टील के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है.
शेर शाह सूरी की १५४५ में मृत्यु के पाश्चर इस्लाम शाह ने उसकी गद्दी संभाली, इस्लाम शाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचाना और उसे व्यापार एवं वित्त संबधी कार्यो के लिए अपना सलाहकार नियुक्त किया. हेमू ने अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लाम शाह का विश्वासपात्र बन गया... इस्लाम शाह हेमू से हर मसले पर राय लेने लगा, हेमू के काम से खुश होकर उसे दरोगा-ए-चौकी (chief of intelligence) बना दिया गया.
१५४५ में इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसके १२ साल के पुत्र फ़िरोज़ शाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिल शाह सूरी ने मार कर गद्दी  हथिया ली. आदिल ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया. आदिल अय्याश और शराबी था... कुल मिला कर पूरी तरह अफगानी सेना का नेतृत्व हेमू के हाथ में आ गया था.
हेमू का सेना के भीतर जम के विरोध भी हुआ.. पर हेमू अपने सारे प्रतिद्वंदियो को एक एक कर हराता चला गया.
उस समय तक हेमू की अफगान सैनिक जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था.. अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासको को विदेशी मानते थे, इसी वजह से हेमू हिन्दू एवं अफगान दोनों में काफी लोकप्रिय हो गया था. 
हुमायु ने जब वापस हमला कर शेर शाह सूरी के भाई को परस्त किया तब हेमू बंगाल में था, कुछ समय बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई.. हेमू ने तब दिल्ली की तरफ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की कई रियासतों को फ़तेह किया. आगरा में मुगलों के सेना नायक  इस्कंदर खान उज्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया.
हेमू ने अपने जीवन काल में एक भी युद्ध नहीं हारा, पानीपत की लडाई में उसकी मृत्यु हुई जो उसका आखरी युद्ध था.
अक्टूबर ६, १५५६ में हेमू ने तरदी बेग खान (मुग़ल) को हारा कर दिल्ली पर विजय हासिल की. यही हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया.
लगभग ३ शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार (कम समय के लिए ही सही) कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना. भले ही हेमू का जन्म ब्राह्मण समाज में हुआ और उसको पालन पोषण भी पुरे धार्मिक तरीके से हुआ पर वह सभी धर्मो को समान मानता था, इसीलिए उसके सेना के अफगान अधिकारी उसकी पूरी इज्ज़त करते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेना नायक साबित हो चूका था.
पानीपत के युद्ध से पहले अकबर के कई सेनापति उसे हेमू से युद्ध करने के लिए मना कर चुके थे, हलाकि बैरम खान जो अकबर का संरक्षक भी था, ने अकबर को दिल्ली पर नियंत्रण के लिए हेमू से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया. पानीपत के युद्ध में भी हेमू की जीत निश्चित थी, किन्तु एक तीर उसकी आँख में लग जाने से, नेतृत्व की कमी की वजह से उसकी सेना का उत्साह कमजोर पड़ गया और उसे बंदी बना लिया गया... अकबर ने हेमू को मारने से मना कर दिया किन्तु बैरम खान ने उसका क़त्ल कर दिया.
आज कई लोग इतिहास के इस महान नायक को भुला चुके है, किन्तु मुगलों को कड़ी टक्कर देने की वजह से ही हिंदुस्तान कई विदेशी आक्रमणों से बचा रहा...  आप खुद ही सोचिये.. बिना किसी राजनैतिक प्रष्ठभूमि के इतनी उचाईयो को छुने वाले का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा.
आज भी हेमू की हवेली जर्जर हालत में रेवारी में है.... भारत ही शायद एक देश है जहा... इतिहास की कोई कदर नहीं होती.

Sunday, May 16, 2010

एक सच्ची कहानी जो आपके रोंगटे खड़े कर देगी

आपसे ज्यादा कुछ न कहते हुए दिखा रहा हु एक ऐसा विडियो, जिसमे सुनीता कृष्णन, एक सामाजिक कार्यकर्ता, अपनी बात कह रही है, सारी कहानी बंया करता एक ऐसा विडियो जो शायद आप को रोने को मजबूर करदे.

Tuesday, April 27, 2010

ब्राह्मण की समस्या और मेनेजमेंट का मंत्र

एक बार एक ब्राह्मण जिस का नाम सेवाराम था, बीरबल के पास गया और बोला मेरे पूर्वज प्रकांड पंडित और विद्वान् थे सभी लोग उन्हें पंडितजी बुलाते थे, मेरे पास पैसा नहीं है और ना ही मुझे इसकी चाहत है, पर मेरी एक ही इच्छा है, की लोग मुझे पंडित जी कह कर बुलाये। सेवाराम ने बीरबल से पूछा क्या ऐसा हो सकता है।
बीरबल मुस्कुराया और बोला यह तो बहुत आसान है, आज से जो भी तुम्हे पंडित जी बुलाये उसे तुम जोर से डाटो। वहा के बच्चे ब्राह्मण को पसंद नहीं करते थे क्योकि वह उन्हें डाटता था, बीरबल ने बच्चो से कहा सेवाराम को पंडित जी कहो तो वह चिडता है।
बस अब बच्चे उसे चिड़ाने के लिए पंडित जी बुलाते और बीरबल के कहे अनुसार ब्राह्मण उन्हें और जोर से डाटता।
बस फिर क्या था, धीरे धीरे ये नाम फैलता गया और लोग उसे पंडित जी बुलाने लगे। बाद में ब्राह्मण ने डाटना बंद कर दिया पर ये नाम उसके साथ ही चिपक गया।
मंत्र :
आप भी अफवाहों को आपके फायेदे के लिए भी इस्तेमाल कर सकते है, अफवाह फैलाने वाले कहानी के बच्चो की तरह हर जगह मौजूद है, आपके ऑफिस में, समाज में, हर जगह।
आप को पता होना चाहिए की कैसे उनसे फायदा उठाना है, देखिये कैसे फ़िल्मी हस्तिया या नेता, उनका इस्तेमाल हमेशा खबरों में रहने के लिए करते है.

Saturday, April 24, 2010

भगत सिंह केस के दस्तावेज़ भारत में

भगत सिंह

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे विवादास्पद और चर्चित मुक़दमे 'लाहौर षडयंत्र केस' के कोर्ट ट्रायल के दस्तावेज़ पहली बार भारत लाए गए हैं.
इस मुक़दमे के दस्तावेज़ की प्रति लाहौर हाईकोर्ट ने हरिद्वार स्थित गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय को सौंपी हैं.
क़रीब 2000 पन्ने के इस दुर्लभ दस्तावेज़ को विश्वविद्यालय के अतिविशिष्ट श्रद्धानंद संग्रहालय में रखा गया है.
उल्लेखनीय है कि आठ अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा में बम फेंकने के बाद खुद ही गिरफ्तारी दे दी थी. उनका मक़सद था अदालत को मंच बनाकर अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करना. बाद में जब ये पाया गया कि भगत सिंह ब्रिटिश पुलिस अधीक्षक जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल थे तो उन पर और उनके दो साथियों राजगुरू और सुखदेव पर देशद्रोह के साथ-साथ हत्या का भी मुक़द्दमा चला जो लाहौर षडयंत्र केस या भगत सिंह ट्रायल के नाम से इतिहास में विख्यात है.

इन दस्तावेज़ों में यह शामिल है कि मुक़दमों के दौरान भगत सिंह और उनके साथियों ने क्या कहा था.
इसके अनुसार भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे फेंके थे उसमें लिखा था, “किसी आदमी को मारा जा सकता है लेकिन विचार को नहीं.”
भगत सिंह ने 'बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन.विचार हमेशा जीवित रहते हैं' और 'बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिये ऊंची आवाज जरूरी है' जैसी बातें भी पर्चों में लिखी थीं.
इतिहासकार कहते हैं कि इसी घटना के बाद उन पर देशद्रोह का मुकद्दमा चला जिसने एकबारगी पूरे ब्रिटिश राज को थर्रा दिया था और देश भर में जन-आक्रोश उमड़ पड़ा था. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर स्वतंत्र कुमार इन दस्तावेज़ों को भारत लाए जाने को बड़ी उपलब्धि मानते हैं. वे कहते हैं, "हमारे लिये ये गर्व की बात है. विश्वविद्यालय की स्थापना गुजरांवला में ही हुई थी जो अब पाकिस्तान में है. मैं पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के निमंत्रण पर लाहौर गया हुआ था. वहां उन्होंने वो कक्ष और रिकॉर्ड दिखाए जो इस मुकद्दमे से जुड़े हुए थे. मैंने इसकी एक प्रति के लिये अनुरोध किया और मुझे खुशी है कि पाकिस्तान हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया.”
वो कहते हैं, “कई बार आदमी काम करता है और उसे अंजाम पता नहीं होता लेकिन इन तीन युवकों का जज़्बा देखकर लगता है कि उन्होंने अंजाम ही सबसे आगे रखा और फाँसी के लिये ही तैयारी की.”
पाँच मई 1930 को शुरू हुआ ये मुक़द्दमा 11 सितंबर 1930 तक चला था.
इतिहासकार कहते हैं कि ये मुकद्दमा इसलिये भी अभूतपर्व था क्योंकि इसमें क़ानूनी न्याय तो दूर की बात न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत को भी तिलांजलि दे दी गई थी जिसके तहत हर अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता है.
संग्रहालय के निदेशक कहते हैं कि इससे भगत सिंह पर शोध करने वालों को मदद मिलेगी
वे बताते हैं कि सरकार ने एक अध्यादेश निकालकर ऐसे अधिकार हासिल कर लिये जिसकी मदद से वो गवाही के सामान्य नियमों और अपील के अधिकार के बिना भगतसिंह और उनके साथियों पर मुकद्दमा चला सकती थी.
तमाम विरोधी स्वरों और गांधीजी के आग्रह के बावजूद 23 मार्च 1931 को तीनों को फांसी पर लटका दिया गया.
इन दस्तावेज़ों में पुलिस अधिकारियों का पक्ष और जजों की टिप्पणियों के साथ अदालत की हर कार्यवाही का विस्तार से वर्णन है. जजों का फ़ैसला सहित पूरी कार्यवाही फारसी में लिखी गई है हालांकि नाम अंग्रेजी में लिखे हुए हैं.
संग्रहालय के निदेशक डॉ. प्रभात कहते हैं, "भगत सिंह की विचारधारा को लेकर कई धारणाएँ और मान्यताएँ है और उनके अध्ययन में ये दस्तावेज़ काफ़ी उपयोगी होगा."
(उपरोक्त लेख बीबीसी की हिंदी वेबसाइट से लिया गया है)

Monday, April 12, 2010

महात्मा गाँधी का चंगेस खान कनेक्शन

एक बार हम से बोले हमारे परम मित्र पंडित प्यारे लाल..
कम्पुटर का बटन दबाओ, जो चाहते हो सब पाओ...
हमने आव न देखा ताव, कम्पुटर का बटन दबाया और पूछा भाया
महात्मा गाँधी के बारे में क्या जानते हो ?
कम्पुटर बोला वे बड़े खूंखार थे, नाश्ते में ३० अंडे और ५ मुर्गिया खाते थे
तलवारबजी के उस्ताद थे, पूरी दुनिया पर अपनी हुकूमत चलाते थे,
हम बोले भैया गजब मत ढहाओ, महात्मा गाँधी के नाम पर कलंक मत लगाओ
तो कंप्यूटर बोला भैया आप भी महात्मा गाँधी की जगह चंगेस खान का बटन मत दबाओ.

Sunday, April 11, 2010

आज शहर से उनके फिर एक मुसाफिर आया

सोये हुए जज्बात को, किस्मत ने यूँ जगाया 
आज शहर से उनके फिर, एक मुसाफिर आया

उसके कपड़ो पर लगी धुल भी, उस शहर का हिस्सा थी
जिस ओर जाने को हमने, हर नुस्खा आजमाया

कितनी खुशनसीब है ये आखे, जो देखती है हर रोज़ उन्हें
तडपे इसकदर हम की अब इस बुत से, डरता है खुद ही का साया

सोचता हु क्या वहा, कलियाअभी भी खिलाती है
यहाँ तो उनके बगैर, हर पत्ता मुरझाया

जी में आया की एक बार छु लू उस मुसाफिर को
शायद इस तरह हमने, अपना सन्देश उन तक पहुचाया