Sunday, April 11, 2010

आज शहर से उनके फिर एक मुसाफिर आया

सोये हुए जज्बात को, किस्मत ने यूँ जगाया 
आज शहर से उनके फिर, एक मुसाफिर आया

उसके कपड़ो पर लगी धुल भी, उस शहर का हिस्सा थी
जिस ओर जाने को हमने, हर नुस्खा आजमाया

कितनी खुशनसीब है ये आखे, जो देखती है हर रोज़ उन्हें
तडपे इसकदर हम की अब इस बुत से, डरता है खुद ही का साया

सोचता हु क्या वहा, कलियाअभी भी खिलाती है
यहाँ तो उनके बगैर, हर पत्ता मुरझाया

जी में आया की एक बार छु लू उस मुसाफिर को
शायद इस तरह हमने, अपना सन्देश उन तक पहुचाया

1 comment:

कुश said...

उनके बगैर हर पत्ता मुरझाया..
क्या थोट है.. नहीं ?